‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’: लोकतंत्र को सशक्त करने की पहल या संघवाद पर आघात? | टेन न्यूज की विशेष रिपोर्ट
टेन न्यूज नेटवर्क
नई दिल्ली (23 दिसंबर 2024): केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हाल ही में ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ (ONOE) योजना को मंजूरी दी है, जो भारत के चुनावी परिदृश्य को बदलने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इस योजना का उद्देश्य लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना है, जिससे समय, संसाधन और धन की बचत हो सके। प्रस्ताव को पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाले उच्च-स्तरीय पैनल ने तैयार किया है, जिसमें इसे चरणबद्ध तरीके से लागू करने की सिफारिश की गई है।
भारत में एक साथ चुनाव कराने का विचार नया नहीं है। स्वतंत्रता के बाद, वर्ष 1952 से 1967 तक देश में लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराए गए थे। लेकिन 1968-69 में कुछ विधानसभाओं के समयपूर्व विघटन और 1970 में लोकसभा के भंग होने के कारण यह प्रक्रिया बाधित हो गई। इसके बाद से चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे।
ONOE योजना के तहत कई संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी। अनुच्छेद 83, 85, 172 और 356 जैसे प्रावधानों में बदलाव करके लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल को समन्वित करना होगा। इसके अलावा, समय से पूर्व सरकारों के भंग होने की स्थिति में चुनाव चक्र को बाधित होने से बचाने के लिये अतिरिक्त प्रावधानों की आवश्यकता होगी।
यह योजना अनेक लाभ प्रदान करती है। सबसे बड़ा फायदा चुनावी लागत में कमी है। बार-बार चुनावों से सरकार और राजनीतिक दलों पर भारी वित्तीय दबाव पड़ता है। ONOE के ज़रिये इस खर्च को कम करके धन का उपयोग बुनियादी ढांचे, स्वास्थ्य और शिक्षा के विकास के लिये किया जा सकता है। साथ ही, आदर्श आचार संहिता के बार-बार लागू होने से जो प्रशासनिक कार्य रुकते हैं, वे भी सुचारु रूप से चल सकेंगे।
हालांकि, इस योजना के समक्ष चुनौतियाँ भी कम नहीं हैं। इसे लागू करने के लिये बड़े पैमाने पर प्रशासनिक और तार्किक तैयारी की आवश्यकता होगी। सभी चुनावों को एक साथ कराने के लिये पर्याप्त संख्या में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (EVM) और सुरक्षा बलों का प्रबंधन करना एक बड़ी चुनौती होगी। इसके अलावा, राज्यों के चुनाव चक्रों को समायोजित करना संघवाद की भावना पर सवाल खड़े कर सकता है।
ONOE को लेकर विभिन्न राजनीतिक दलों की राय बंटी हुई है। कुछ दल इसे लोकतंत्र को सशक्त बनाने वाला कदम मानते हैं, तो वहीं कुछ इसे राज्यों की स्वायत्तता पर आघात के रूप में देखते हैं। आलोचकों का कहना है कि इससे स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय एजेंडे के सामने दब सकते हैं, जिससे क्षेत्रीय विकास की प्राथमिकताएँ प्रभावित हो सकती हैं।
अंततः, यह देखना दिलचस्प होगा कि ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का प्रस्ताव किस रूप में लागू होता है और यह भारतीय लोकतंत्र पर क्या प्रभाव डालता है।।
रंजन अभिषेक (टेन न्यूज नेटवर्क, नई दिल्ली)
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