मुसलमानों को राजनीतिक रूप से अलग करने की साजिश या रणनीति?

टेन न्यूज नेटवर्क

National News (02/11/2025): भारत पर ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजों ने देश को अपने नियंत्रण में बनाए रखने के लिए कई नीतियां अपनाईं। इनमें सबसे प्रभावशाली नीति थी — “Divide and Rule” यानी “विभाजन और शासन” की नीति। इतिहासकारों के अनुसार, अंग्रेजों ने धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक स्तर पर भारतीय समाज को बाँटने की रणनीति अपनाई, जिससे उनका शासन लंबा चल सके। इसी नीति के तहत हिन्दू और मुसलमान समुदायों के बीच दूरी बढ़ाने के कई प्रयास किए गए।

1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों के प्रति कठोर दृष्टिकोण अपनाया। ब्रिटिश सरकार ने 1857 के विद्रोह की जिम्मेदारी मुसलमानों पर थोप दी, जिससे उन्हें सरकारी नौकरियों, शिक्षा और प्रशासनिक अवसरों से वंचित किया गया। इससे मुस्लिम समाज आर्थिक और सामाजिक रूप से कमजोर होता चला गया।

19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, जब भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसे संगठनों के माध्यम से राष्ट्रीय आंदोलन तेज़ी पकड़ने लगा, तब अंग्रेजों ने मुसलमानों को “राजनीतिक सुरक्षा” के नाम पर अलग करने की रणनीति बनाई। वर्ष 1905 में बंगाल का विभाजन इसी नीति का उदाहरण था, जहाँ पूर्वी बंगाल को मुस्लिम बहुल क्षेत्र और पश्चिमी बंगाल को हिन्दू बहुल क्षेत्र घोषित किया गया। इस विभाजन से दोनों समुदायों में अविश्वास की भावना गहराई।

1906 में ‘सिमला डिपुटेशन’ के माध्यम से कुछ मुस्लिम नेताओं ने अंग्रेजी हुकूमत से मुसलमानों के लिए अलग निर्वाचन मंडल की मांग की। परिणामस्वरूप, 1909 के मोरले-मिंटो सुधार अधिनियम के तहत मुसलमानों को पृथक निर्वाचन की सुविधा दी गई। इसका सीधा प्रभाव यह हुआ कि मुसलमानों को एक अलग राजनीतिक इकाई के रूप में देखा जाने लगा, जिससे साम्प्रदायिक राजनीति की नींव पड़ी।

इतिहासकारों का मानना है कि अंग्रेजों का यह कदम न केवल तत्कालीन राजनीतिक माहौल को प्रभावित करने वाला था, बल्कि उसने भविष्य में भारत के विभाजन की राह भी तैयार की। हालांकि, यह कहना कठिन है कि यह मुसलमानों को “बर्बाद करने की साजिश” थी या केवल “शासन बनाए रखने की रणनीति”। ब्रिटिश शासन का उद्देश्य भारतीयों में आपसी मतभेद बढ़ाकर अपने नियंत्रण को स्थायी बनाना था।

अंग्रेजों की यह “विभाजन की नीति” भारतीय समाज के भीतर ऐसे घाव छोड़ गई, जिनके निशान आज भी दिखाई देते हैं। यह नीति न केवल राष्ट्रवादी आंदोलन को कमजोर करने में सहायक रही, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप के राजनीतिक स्वरूप को भी स्थायी रूप से बदल गई।

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