लोकसभा में जस्टिस यशवंत वर्मा के खिलाफ महाभियोग प्रस्ताव स्वीकार

टेन न्यूज़ नेटवर्क

New Delhi News (12/08/2025): लोकसभा अध्यक्ष ओम बिरला (Om Birla) ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति यशवंत वर्मा (Yashwant Verma ) के खिलाफ महाभियोग चलाने के लिए 146 सांसदों द्वारा हस्ताक्षरित प्रस्ताव को औपचारिक रूप से स्वीकार कर लिया है। उन्होंने सदन में घोषणा की कि संविधान के अनुच्छेद 124(4), 217 और 218 के तहत इस प्रक्रिया की शुरुआत की गई है। इसके साथ ही न्यायमूर्ति (जांच) अधिनियम, 1968 के तहत आरोपों की जांच के लिए तीन सदस्यीय वैधानिक समिति का गठन किया गया है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरविंद कुमार, मद्रास हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश जस्टिस मनिंदर मोहन श्रीवास्तव और कर्नाटक हाईकोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता बीवी आचार्य शामिल हैं। समिति अपनी जानकारी रिपोर्ट सौंपने तक प्रस्ताव लंबित रहेगा।

यह पूरा विवाद 14 मार्च 2025 की उस घटना से जुड़ा है, जब नई दिल्ली स्थित जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास के बाहरी हिस्से में जले हुए नोटों के बंडल पाए गए थे। इस घटना ने न्यायिक हलकों में हलचल मचा दी थी। उस समय जस्टिस वर्मा घर पर मौजूद नहीं थे, लेकिन बाद में आंतरिक जांच में यह निष्कर्ष निकला कि वे इस नकदी पर ‘नियंत्रण’ रखते थे। घटना के बाद उन्हें दिल्ली हाईकोर्ट से इलाहाबाद हाईकोर्ट स्थानांतरित कर दिया गया था।

31 जुलाई 2025 को लोकसभा अध्यक्ष को यह महाभियोग प्रस्ताव प्राप्त हुआ था, जिस पर पूर्व केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद और विपक्ष के नेता सहित 146 लोकसभा सदस्य और 63 राज्यसभा सदस्य के हस्ताक्षर थे। यह प्रस्ताव संसद में पढ़कर सुनाया गया, जिससे औपचारिक प्रक्रिया का पहला चरण पूरा हो गया। ओम बिरला ने कहा कि यह देश के न्यायिक इतिहास की संवैधानिक दृष्टि से बेहद दुर्लभ घटना है और इसे पूरी गंभीरता से अंजाम दिया जाएगा।

महत्वपूर्ण है कि मार्च 2025 की घटना के बाद तीन सदस्यीय आंतरिक न्यायिक समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि बरामद नकदी के मामले में जस्टिस वर्मा का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष नियंत्रण था। इस रिपोर्ट के आधार पर भारत के मुख्य न्यायाधीश ने उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश की थी। इसे देखते हुए सांसदों ने महाभियोग का प्रस्ताव पेश किया।

जस्टिस वर्मा ने इस रिपोर्ट को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी। उन्होंने तर्क दिया कि जांच प्रक्रिया में गंभीर खामियां हैं और यह संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण है। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट ने पिछले सप्ताह उनकी याचिका खारिज कर दी। अदालत ने जांच को पारदर्शी और संविधानसम्मत करार दिया और उनकी आलोचना की कि पहले उन्होंने जांच में भाग लिया और बाद में उसकी वैधता पर सवाल उठाए।

लोकसभा अध्यक्ष द्वारा गठित वैधानिक समिति आरोपों की गहन जांच करेगी। अगर समिति आरोपों को सही पाती है, तो महाभियोग प्रस्ताव को संसद के दोनों सदनों में विशेष बहुमत से पारित करना होगा। इसका अर्थ है उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई मत के साथ-साथ कुल सदस्यों का बहुमत।

विशेष बहुमत से दोनों सदनों से पारित होने के बाद ही यह प्रस्ताव राष्ट्रपति के पास अनुमोदन के लिए भेजा जाएगा। राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने पर जस्टिस वर्मा को पद से हटाया जा सकेगा। इस प्रक्रिया को भारत के संवैधानिक तंत्र में न्यायपालिका की जवाबदेही सुनिश्चित करने के दुर्लभ उदाहरण के तौर पर देखा जा रहा है।

स्वतंत्र भारत में यह सिर्फ तीसरी बार है जब किसी कार्यरत न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की प्रक्रिया शुरू की गई है। इससे पहले 1991 में जस्टिस वी. रामास्वामी और 2011 में जस्टिस सौमित्र सेन के खिलाफ यह प्रक्रिया हुई थी। जस्टिस वर्मा का मामला न केवल कानूनी दृष्टि से, बल्कि न्यायपालिका की नैतिक साख और पारदर्शिता के लिहाज से भी अहम माना जा रहा है।


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