अस्थिर अमेरिकी नीतियां और भारतीय सुस्ती: निर्यात और द्विपक्षीय व्यापार के लिए दोहरी चुनौती
लेखक: कपिल साध (हैंडीक्राफ्ट्स निर्यातक)
National News (06/08/2025): डोनाल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने पर अंतरराष्ट्रीय व्यापार जगत को उनसे बड़ी उम्मीदें थीं। व्यवसायिक पृष्ठभूमि के चलते माना गया था कि वे व्यापार को बेहतर समझेंगे और स्थिर, व्यावहारिक नीतियां अपनाएंगे। लेकिन ट्रंप प्रशासन की अस्थिर, एकतरफा और अचानक घोषित आयात शुल्क नीतियां इन अपेक्षाओं के उलट साबित हुईं और अमेरिका के साझेदार देशों, खासकर भारत, के साथ व्यापारिक संबंधों में अनिश्चितता और तनाव पैदा करने वाली रहीं।
2019 में अमेरिका ने भारत को GSP (Generalized System of Preferences) से बाहर कर दिया, जिससे भारत के कई उत्पाद शुल्क-मुक्त अमेरिकी बाजार में नहीं जा सके। भारत ने जवाब में अमेरिकी कृषि उत्पादों पर शुल्क बढ़ा दिए, जिससे दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते की वार्ता प्रभावित हुई।
भारत और अमेरिका के बीच द्विपक्षीय व्यापार समझौते (Bilateral Trade Agreement) की बातचीत लंबे समय से चल रही है, पर अमेरिका द्वारा समय-समय पर बिना पारदर्शिता के घोषित आयात शुल्क ने इस प्रक्रिया को बार-बार झटका दिया। इससे व्यापारिक माहौल अस्थिर हुआ और उद्योग जगत में अपने राजनीतिक नेतृत्व पर विश्वास डगमगाया। व्यापारिक रणनीति और निवेश निर्णय तब तक सुरक्षित नहीं रह सकते जब तक सरकारें भरोसेमंद और स्थिर नीतियां नहीं अपनातीं।
यद्यपि भारत और अमेरिका के बीच रक्षा, विज्ञान और तकनीक में घनिष्ठ सहयोग है, व्यापारिक मोर्चे पर असहमति और अविश्वास आज भी बाधा बना हुआ है। ट्रंप द्वारा भारत को “टैरिफ किंग” कहना और अमेरिका के व्यापार घाटे के लिए भारत को बार-बार जिम्मेदार ठहराना, रिश्तों में और खटास लाने वाला रहा।
डोनाल्ड ट्रंप का कार्यकाल यह दिखा गया कि केवल व्यवसायिक पृष्ठभूमि होना पर्याप्त नहीं; अंतरराष्ट्रीय व्यापार संबंधों के लिए स्थायित्व और संतुलन भी अनिवार्य है, जो उनके प्रशासन में नहीं था। भविष्य में भारत-अमेरिका को पारदर्शी और विश्वसनीय व्यापारिक समझौतों की दिशा में बढ़ना होगा, तभी दोनों देशों को इसका लाभ मिल सकेगा।
घरेलू मोर्चे पर भारत की नीतिगत सुस्ती और निर्यातकों की मुश्किलें
लेकिन समस्या सिर्फ अमेरिका की अस्थिर नीतियों तक सीमित नहीं है। भारत के अपने निर्यात क्षेत्र की स्थिति भी निराशाजनक है। 1 फरवरी 2025 को वित्त मंत्री श्रीमती निर्मला सीतारमण द्वारा घोषित वित्त विधेयक 2025 में ‘निर्यात संवर्धन मिशन (Export Promotion Mission)’ का ऐलान किया गया, जिसमें Interest Equalisation Scheme और Marketing Development Assistance Fund जैसी योजनाओं को मिलाकर तुरंत लागू करने की बात कही गई थी।
लेकिन इसके बाद से आज तक निर्यातक समुदाय के लिए कोई ठोस लाभ ज़मीनी स्तर पर नहीं पहुँच पाया है। केवल मंत्रालयों के बीच बैठकों, सचिव-स्तरीय समितियों और फाइलों के फेर में ही समय बीत रहा है। इस बीच निर्यातक अर्थव्यवस्था पर दबाव लगातार बढ़ता जा रहा है।
भारत के वाणिज्य मंत्रालय, वित्त मंत्रालय और MSME मंत्रालय को अपनी नीतियों के क्रियान्वयन में तेजी और गंभीरता लानी होगी। खासकर MSMEs, जो भारत के निर्यात में रीढ़ की हड्डी हैं, उन्हें समयबद्ध सहायता और सरल प्रक्रियाएं चाहिए, न कि काग़ज़ी खानापूरी।
उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में भी स्थिति अलग नहीं है। निर्यात संवर्धन ब्यूरो और उद्योग निदेशालय, जो UP MSME मंत्री श्री राकेश सचान के अधीन हैं, पहले से घोषित योजनाओं को कछुए की रफ्तार से लागू कर रहे हैं। ब्यूरोक्रेटिक रेड टेपिज़्म यानी अति-प्रक्रियात्मक अड़चनें इस सुस्ती की बड़ी वजह हैं, और इसका सीधा नुकसान प्रदेश के निर्यातकों को हो रहा है, जो वैश्विक प्रतिस्पर्धा में जूझ रहे हैं।
राजनीतिक इच्छाशक्ति ही है समाधान
भारत के राजनीतिक नेतृत्व को समझना होगा कि निर्यात केवल व्यापारिक आंकड़ा नहीं, बल्कि विदेशी मुद्रा का बड़ा स्रोत और रोज़गार सृजन का महत्वपूर्ण जरिया है। इसके लिए घोषणाओं से ज़्यादा ज़रूरी है सक्षम क्रियान्वयन और ईमानदारी से उद्योग का समर्थन।
हमारे राजनीतिक नेता यदि हमेशा चुनावी मोड में ही रहेंगे और उद्योग को प्राथमिकता नहीं देंगे, तो भारत वैश्विक निर्यात प्रतिस्पर्धा में पिछड़ता जाएगा। निर्यात के ज़रिये ही भारत को बहुप्रतीक्षित विदेशी मुद्रा मिल सकती है, और यहीं से आर्थिक मजबूती का रास्ता भी निकलता है — जैसा कई अन्य विकासशील अर्थव्यवस्थाएं दिखा रही हैं।

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