टेन न्यूज नेटवर्क
दुनिया के अमीर, औद्योगिक और विकसित कहे जाने वाले देशों का लालच धरती को सबसे ज़्यादा भारी पड़ रहा है. इनमें सबसे आगे है खाड़ी देश, कतर अगर पूरी दुनिया क़तर की तरह प्राकृतिक संसाधनों को खर्च करने लगे तो पृथ्वी एक साल में संसाधनों की जितनी भरपाई कर पाती है उतने संसाधन 11 फरवरी तक ख़त्म हो जाएंगे. जो जितना ज्यादा अमीर है, उसके पास उतनी ज्यादा सुविधाएं हैं और वह उतना ही ज्यादा प्रदूषण फैला रहा है. इस धरती की सेहत के लिए अमीर लोग कहीं ज्यादा नुकसानदेह साबित हो रहे हैं. दुनिया की आबादी धनाढ्य लोगों की तादाद सिर्फ एक प्रतिशत है, लेकिन वे कुल मिलाकर लगभग 16 प्रतिशत उत्सर्जन के लिए जिम्मेदार हैं

धरती जो हमें जीने के लिए सभी जरूरी प्राकृतिक संसाधन प्रदान करती है जिसमें हवा, पानी, पेड़ आदि शामिल हैं, लेकिन हम इनका अत्यधिक उपभोग कर रहे हैं। हम उपभोग के मामले में लक्ष्य से बाहर चले गए हैं जिसे ओवरशूट भी कहा जाता है1969 में धरती एक साल में जितना संसाधन तैयार करती थी, पूरी दुनिया उसका इस्तेमाल करीब 13 महीने करती थी। दिन बदले, तस्वीर बदली। आज हम धरती के एक साल के लिए तय संसाधन करीब सात महीने में ही समाप्त कर दे रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्लोबल फुट प्रिंट की रिपोर्ट के मुताबिक हमने सोमवार (24 जुलाई) तक इस साल यानी 2025 के लिए धरती के समस्त संसाधनों का इस्तेमाल कर लिया है। साल भर के लिए नियत संसाधन हम सबने इतने कम दिन में ही खत्म कर दिया है।जिसका अर्थ है कि हम प्राकृतिक संसाधनों का 1.75 गुना अधिक तेज़ी से प्रयोग कर रहे हैं। पिछले बीस साल में अर्थ ओवरशूट डे दो महीने आगे आ चुका है। यानी आज से हम उधार के संसाधनों पर जीवित रहेंगे। अंधाधुंध दोहन ने एक धरती से हमारी जरूरतें पूरी नहीं हो रही हैं। विशेषज्ञों के अनुसार इसे पूरा करने के लिए 1.75 धरती की दरकार है। 2030 यह जरूरत बढ़कर दो पृथ्वी की हो जाएगी।अर्थ ओवरशूट डे की एक दिलचस्प कहानी है जो हमें सचेत भी करती है। इसकी शुरुआत यूके में न्यू इकोनॉमिक्स फाउंडेशन के विचारक एंड्रयू सिम्स के द्वारा हुई।
उन्होंने इस अवधारणा को सामने रखा और 2006 में ग्लोबल फुटप्रिंट नेटवर्क ने फाउंडेशन के साथ मिलकर सबसे पहला अर्थ ओवरशूट डे अभियान शुरू किया। 2007 से, एक प्रमुख संरक्षण समूह, वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड (डब्ल्यूडब्ल्यूएफ) भी इसमें शामिल हो गया।
अर्थ ओवरशूट इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का इतना अधिक उपयोग किया है जितना कि हमारी धरती एक साल में पैदा नहीं कर सकती। इसकी गणना पृथ्वी की जैव क्षमता को उन संसाधनों के लिए लोगों की मांग से विभाजित करके, फिर 365 से गुणा करके की जाती है।वर्तमान में भारत को अपनी आबादी की मांग को पूरा करने के लिए अपने संसाधनों की 2.6 गुना करने की जरूरत है, जिसके कारण जंगलों का नाश हो रहा है, जैव विविधता कम हो रही है और जलवायु में तेजी से बदलाव आ रहा है। जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता, अंधाधुंध कृषि और तेजी से बढ़ता शहरीकरण इस सब के लिए जिम्मेवार हैं। नीति आयोग की एक रिपोर्ट में भी चेतावनी दी गई है कि साल 2030 तक भारत की पानी की मांग उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी हो सकती है, जिससे लाखों लोगों के लिए पानी की गंभीर कमी का खतरा पैदा हो सकता है। अगर यही स्थिति बनी रही और हमने संसाधनों के दोहन की प्रक्रिया धीमी नहीं की, तो वह दिन दूर नहीं जब हम साल के शुरू में ही सालभर में पैदा होने वाले प्राकृतिक संसाधनों का दोहन कर लेंगे। इससे साल दर साल संरक्षित प्राकृतिक संसाधनों की खपत बढ़ती जाएगी, जो बड़े संकट का कारण बनेगी।
अर्थ ओवरशूट डे प्रत्येक वर्ष निकट आता जा रहा है। वर्ष 1993 में यह 21 अक्तूबर को आया था, वर्ष 2003 में यह 22 सितंबर को आया था और वर्ष 2017 में यह दिन 2 अगस्त को आया था।यदि हम सभी मांस के प्रयोग को लगभग 50 प्रतिशत तक कम कर दें तो खाद्य ज़रूरतों के कारण पृथ्वी हरी-भरी रहेगी और अर्थ ओवरशूट डे लगभग 15 दिन आगे खिसक जाएगा।कार्बन का अत्यधिक उत्सर्जन इस त्रासदी का सबसे प्रमुख कारण है और इसलिये यदि हमें इस समस्या से निपटना है तो कार्बन के न्यूनतम उत्सर्जन को सुनिश्चित करना होगा।
यह दिन हमें याद दिलाता है कि हर काम मायने रखता है और अधिक टिकाऊ विकल्प अपनाकर, हम साल के अंत में अर्थ ओवरशूट दिवस को आगे बढ़ाने में मदद कर सकते हैं और ऐसा समय लाने का लक्ष्य बना सकते हैं जब हमारी मांगें धरती के द्वारा प्रदान की जा सकने वाली मांग से मेल खाएं।
लेखक विज्ञान व पर्यावरण मामलों के जानकर हैं तथा वर्तमान मैं भारतीय राजदूतावास केन्द्रीय विद्यालय काठमांडू मैं कार्यरत हैं
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