रेप पीड़िताओं के अबॉर्शन में पहचान पत्र की बाध्यता ना हो: दिल्ली हाईकोर्ट

टेन न्यूज़ नेटवर्क

नई दिल्ली (03 जून 2025): दिल्ली हाईकोर्ट ने एक अहम फैसले में राजधानी के अस्पतालों और मेडिकल संस्थानों को निर्देश दिया है कि वे रेप पीड़िताओं से, खासकर नाबालिगों से, गर्भपात के लिए अदालत के आदेश के बावजूद पहचान पत्र मांगने पर जोर न दें। न्यायमूर्ति स्वर्णकांता शर्मा ने कहा कि ऐसे मामलों में संवेदनशील और व्यावहारिक दृष्टिकोण अपनाना बेहद जरूरी है। कोर्ट ने कहा कि पहचान पत्र की मांग, मेडिकल जांच में देरी और प्रक्रिया की अस्पष्टता ने याचिकाकर्ता पीड़िता की मानसिक पीड़ा को और बढ़ा दिया।

अदालत ने कहा कि रेप जैसे गंभीर मामलों में मेडिकल प्रोटोकॉल केवल कानूनी औपचारिकताओं तक सीमित नहीं रहने चाहिए, बल्कि उनमें सहानुभूति और पीड़िताओं की भावनात्मक और सामाजिक स्थितियों की समझ भी शामिल होनी चाहिए। विशेष रूप से नाबालिग बलात्कार पीड़िताओं के मामले में, अस्पतालों को ज्यादा जिम्मेदारी और संवेदनशीलता से काम करना चाहिए। कोर्ट ने इस दिशा में “स्पष्ट, व्यावहारिक और संवेदनशील” मेडिकल प्रोटोकॉल तैयार करने की तत्काल जरूरत पर बल दिया है।

फैसले में यह भी स्पष्ट किया गया कि अगर पीड़िता जांच अधिकारी (IO) के साथ हो या अदालत/बाल कल्याण समिति के आदेश पर अस्पताल लाई गई हो, तो डॉक्टरों को उसकी पहचान के लिए अलग से कोई दस्तावेज मांगने की आवश्यकता नहीं है। जांच अधिकारी द्वारा की गई पुष्टि ही पर्याप्त मानी जाएगी। यह व्यवस्था पीड़िता की निजता की रक्षा करते हुए उसे समय पर चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराने के लिए बेहद अहम मानी जा रही है।

हाईकोर्ट ने आदेश में यह भी कहा कि गर्भपात की मांग करने वाली रेप पीड़िताओं के मामलों में डॉक्टरों को बिना देरी किए व्यापक मेडिकल जांच करनी चाहिए। साथ ही, 24 सप्ताह से अधिक गर्भावस्था होने की स्थिति में मेडिकल बोर्ड का गठन तुरंत किया जाना चाहिए और कोर्ट के विशेष आदेश की प्रतीक्षा किए बिना आवश्यक रिपोर्ट तैयार कर संबंधित प्राधिकरणों के समक्ष रखी जानी चाहिए। इससे पीड़िता को समय पर राहत मिल सकेगी।

कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया कि गर्भ समापन की सहमति पीड़िता या उसके अभिभावक से उस भाषा में ली जाए जो उन्हें पूरी तरह समझ में आए। इस आदेश को रेप पीड़िताओं की गरिमा, अधिकार और मानसिक स्थिति की रक्षा की दिशा में एक निर्णायक कदम माना जा रहा है। यह फैसला न केवल पीड़िताओं के लिए न्याय प्रणाली को अधिक संवेदनशील बनाएगा, बल्कि देशभर के अस्पतालों के लिए एक दिशा-निर्देश भी साबित होगा।


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