अब तीन साल की वकालत के बाद ही बनेगा कोई सिविल जज

टेन न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली (20 मई 2025): सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालतों में सिविल जज (जूनियर डिवीजन) की नियुक्तियों को लेकर एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया है, जो देश की न्यायिक प्रणाली में बड़ा बदलाव लेकर आया है। शीर्ष अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया है कि अब से कोई भी उम्मीदवार सीधे लॉ की डिग्री हासिल करने के बाद ज्यूडिशियल सर्विस परीक्षा में नहीं बैठ सकेगा। सिविल जज बनने के इच्छुक उम्मीदवारों को न्यूनतम तीन साल की अनिवार्य वकालत करनी होगी, तभी वे इस परीक्षा में शामिल होने के पात्र होंगे। सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने लाखों लॉ ग्रेजुएट्स की योजनाओं को प्रभावित किया है, लेकिन अदालत का मानना है कि इससे न्यायपालिका की गुणवत्ता में सुधार होगा।

इस फैसले के पीछे सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ थी, जिसमें मुख्य न्यायाधीश भूषण रामाकृष्ण गवई, जस्टिस एजी मसीह और जस्टिस विनोद चंद्रन शामिल थे। उन्होंने सुनवाई के दौरान कहा कि पिछले दो दशकों से यह देखा गया है कि बिना किसी व्यावहारिक अनुभव के सीधे नियुक्त किए गए न्यायिक अधिकारियों के कारण न्यायिक प्रक्रिया में कई जटिलताएँ और अव्यवस्थाएँ उत्पन्न हुई हैं। जस्टिस गवई ने यह भी कहा कि हाईकोर्ट्स द्वारा प्रस्तुत किए गए हलफनामों से यह स्पष्ट हुआ है कि नए लॉ स्नातकों की सीधी नियुक्ति से न्यायालयों के कामकाज में व्यावहारिक दिक्कतें आई हैं। अदालत ने माना कि न्यायिक अधिकारी बनने से पहले वास्तविक अदालत की कार्यप्रणाली में अनुभव हासिल करना बेहद जरूरी है।

सुप्रीम कोर्ट ने इस दौरान यह भी याद दिलाया कि वर्ष 2002 तक यह प्रावधान लागू था कि सिविल जज बनने से पहले कुछ वर्षों का वकालती अनुभव जरूरी होता था, लेकिन उस वर्ष एक फैसले के तहत इस प्रावधान को हटा दिया गया था। उसके बाद से ही नए लॉ ग्रेजुएट्स को सीधे ज्यूडिशियल सर्विस परीक्षा देने और चयनित होकर न्यायाधीश बनने का मौका मिलने लगा था। हालांकि बीते वर्षों में कई याचिकाओं और हाईकोर्ट्स की टिप्पणियों के जरिए यह मांग बार-बार उठी कि इस प्रावधान को फिर से लागू किया जाए, ताकि न्यायिक पदों की गरिमा बनी रहे और अनुभवहीनता के कारण उत्पन्न समस्याओं से बचा जा सके।

इस फैसले का व्यापक असर होने जा रहा है। देशभर की ज्यूडिशियल सर्विस परीक्षाओं में अब यह शर्त अनिवार्य हो गई है कि उम्मीदवार को कम से कम तीन साल तक अधिवक्ता के रूप में किसी अदालत में पंजीकृत होकर व्यावसायिक अनुभव प्राप्त करना होगा। इसका मतलब है कि कानून की डिग्री लेने के बाद सीधे परीक्षा देने की राह अब बंद हो चुकी है। यह कदम न्यायिक सेवा में गंभीर और अनुभवी उम्मीदवारों की भागीदारी सुनिश्चित करने की दिशा में माना जा रहा है।

कुल मिलाकर, सुप्रीम कोर्ट का यह निर्णय न केवल न्यायपालिका की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के इरादे से लिया गया है, बल्कि इससे न्यायिक प्रक्रिया में व्यावहारिक समझ, अनुभव और संवेदनशीलता की उपस्थिति भी बढ़ेगी। जहां एक ओर यह फैसला नई पीढ़ी के लॉ ग्रेजुएट्स को थोड़ा इंतज़ार करवाएगा, वहीं दूसरी ओर इससे न्यायपालिका में निपुणता और दक्षता सुनिश्चित होने की उम्मीद है।


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