गवर्नर की शक्तियों पर SC का ऐतिहासिक फैसला, सर्वोच्च न्यायालय ने अपने फैसले में क्या कहा?

टेन न्यूज़ नेटवर्क

New Delhi News (20 November 2025): गवर्नर की संवैधानिक शक्तियों को लेकर उपजे विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को बड़ा फैसला देते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा किए गए 16वें प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर विस्तृत राय दी। यह भारत के इतिहास में ऐसा केवल 16वां अवसर है जब राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सर्वोच्च न्यायालय से सलाह मांगी हो। मुख्य न्यायाधीश बी आर गवई की अध्यक्षता वाली पांच जजों की संविधान पीठ ने 14 में से 11 सवालों के स्पष्ट उत्तर दिए और बाकी सवाल अनुत्तरित छोड़ दिए।

फैसले का आधार अप्रैल 2025 के तमिलनाडु केस से जुड़ा था, जिसमें सुप्रीम कोर्ट की दो-जजों की पीठ ने कहा था कि गवर्नर किसी बिल पर अनिश्चितकाल तक चुप नहीं रह सकते और उन्हें तय समय में फैसला लेना ही होगा। इसी फैसले के बाद राष्ट्रपति ने यह प्रश्न उठाया कि क्या गवर्नर वास्तव में इतने बंधे हुए हैं या उन्हें अधिक व्यापक विवेकाधिकार प्राप्त है? आज आए निर्णय ने इस बहस पर काफी हद तक स्पष्टता ला दी है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गवर्नर किसी बिल को ‘सिम्पली विथहोल्ड’ नहीं कर सकते। उनके पास तीन विकल्प हैं—(1) बिल को मंजूरी देना, (2) उसे राष्ट्रपति के पास भेजना, या (3) टिप्पणियों के साथ विधायिका को वापस भेजना। यदि विधायिका बिल को दोबारा भेजती है, चाहे संशोधन करे या नहीं, तब गवर्नर के पास केवल दो विकल्प बचते हैं—मंजूरी देना या राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना। इस चरण पर वे मंजूरी रोक नहीं सकते।

कोर्ट ने ‘डीम्ड असेंट’ की अवधारणा को पूरी तरह खारिज कर दिया। उसने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 200 व 201 में कोई टाइमलाइन नहीं दी गई है, इसलिए अदालतें समयसीमा तय नहीं कर सकतीं। तमिलनाडु फैसले में जो समयसीमा तय की गई थी, उसे संविधान पीठ ने गलत करार दिया। कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि राष्ट्रपति या गवर्नर की इन शक्तियों पर अदालतें ‘मेरिट रिव्यू’ नहीं कर सकतीं।

हालांकि कोर्ट ने यह भी कहा कि गवर्नर की लंबी चुप्पी या निष्क्रियता न्यायिक समीक्षा के दायरे में आती है। अनुच्छेद 361 के तहत गवर्नर को व्यक्तिगत प्रतिरक्षा जरूर है, पर अदालत यह निर्देश दे सकती है कि वे ‘उचित अवधि’ में अपना संवैधानिक विकल्प इस्तेमाल करें। यह बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी है, क्योंकि इससे राज्यों की शिकायतों का समाधान का एक रास्ता खुला रहता है।

राष्ट्रपति के सवालों में से कई व्यापक संवैधानिक सवाल थे, जैसे क्या राष्ट्रपति हर बार 143 के तहत सलाह मांगने के लिए बाध्य हैं? सुप्रीम कोर्ट ने कहा—नहीं, जब ज़रूरत हो तभी सलाह ली जा सकती है। इसी तरह अदालत ने स्पष्ट किया कि किसी बिल को कानून बनने से पहले उसकी ‘ज्यूडिशल रिव्यू’ संभव नहीं है। ऐसा करना शक्तियों के पृथक्करण (Separation of Powers) सिद्धांत का उल्लंघन होगा।

कुल मिलाकर यह फैसला केंद्र–राज्य संबंधों और विधायी प्रक्रिया पर गहरा प्रभाव छोड़ने वाला है। कोर्ट ने जहां गवर्नर को मनमानी से रोका, वहीं उनकी संवैधानिक भूमिका और विवेकाधिकार को भी स्वीकार किया। इस निर्णय ने यह पुनः निर्धारित किया कि भारतीय संघीय ढांचे में गवर्नर और राष्ट्रपति की भूमिका सीमित, पर अत्यंत संवैधानिक है और अदालतें इस दायरे का अतिक्रमण नहीं कर सकतीं।।


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