क्रांति-ज्योति सावित्रीबाई फुले: सामाजिक न्याय की अग्रदूत और भारत की पहली शिक्षिका
टेन न्यूज नेटवर्क
नई दिल्ली (03 जनवरी, 2025): सावित्रीबाई फुले (3 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897) भारतीय समाज की वह महान विभूति हैं, जिन्होंने अपने अदम्य साहस, संघर्ष और असीम धैर्य के बल पर महिलाओं और वंचित वर्गों को शिक्षा और समानता का अधिकार दिलाने का प्रयास किया। सावित्रीबाई केवल भारत की पहली महिला शिक्षिका ही नहीं थीं, बल्कि वह एक प्रखर समाज सुधारक, कवयित्री और महिलाओं के अधिकारों की समर्थक भी थीं। उनका जीवन उन संघर्षशील महिलाओं के लिए प्रेरणा का स्रोत है, जो किसी भी बाधा के सामने झुकने के बजाय समाज में बदलाव लाने का प्रयास करती हैं।
प्रारंभिक जीवन और शिक्षा का सफर
सावित्रीबाई का जन्म महाराष्ट्र के सतारा जिले के नायगांव में हुआ था। उनका बचपन एक साधारण किसान परिवार में बीता। उस समय महिलाओं की शिक्षा पर कड़े प्रतिबंध थे। 1840 में, 9 वर्ष की उम्र में उनका विवाह ज्योतिराव गोविंदराव फुले से हुआ। ज्योतिराव ने उनके भीतर छिपी शिक्षा की जिज्ञासा को पहचाना और उन्हें पढ़ने-लिखने के लिए प्रेरित किया। सावित्रीबाई ने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद समाज की अनपढ़ और वंचित महिलाओं को शिक्षित करने का प्रण लिया।
भारत की पहली महिला शिक्षिका
सावित्रीबाई ने 1848 में पुणे में लड़कियों के लिए भारत का पहला स्कूल स्थापित किया। वह न केवल शिक्षिका थीं, बल्कि उन्होंने महिलाओं और समाज के वंचित वर्गों के लिए शिक्षा के नए दरवाजे खोले। उस समय समाज में व्याप्त जातिवाद, पितृसत्ता और अंधविश्वास के कारण उनके इस प्रयास को कड़ा विरोध सहना पड़ा। लोग उन्हें अपमानित करने के लिए गंदगी और पत्थर फेंकते थे, लेकिन सावित्रीबाई ने हर बाधा को सहन कर अपने काम को जारी रखा।
सामाजिक सुधारों में योगदान
सावित्रीबाई फुले और ज्योतिराव फुले ने मिलकर समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों के खिलाफ संघर्ष किया। उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह को बढ़ावा दिया और सती प्रथा, बाल विवाह तथा जातिगत भेदभाव का विरोध किया। 1854 में उन्होंने विधवाओं और परित्यक्त महिलाओं के लिए एक आश्रय स्थल (बालहत्या प्रतिबंधक गृह) की स्थापना की, जहाँ वह अनाथ और समाज द्वारा अस्वीकार की गई महिलाओं की देखभाल करती थीं।
कवयित्री और विचारक
सावित्रीबाई केवल एक शिक्षिका और समाज सुधारक ही नहीं थीं, बल्कि उन्होंने अपनी कविताओं और लेखन के माध्यम से भी समाज में जागरूकता फैलाई। उनकी कविताएँ महिलाओं और दलितों को प्रेरित करती थीं और आत्मसम्मान तथा स्वाभिमान से जीने का संदेश देती थीं।
महामारी के दौरान सेवा
1897 में जब पुणे में प्लेग महामारी फैली, तो सावित्रीबाई ने अपनी जान की परवाह किए बिना रोगियों की सेवा की। इसी सेवा के दौरान वह भी इस महामारी की चपेट में आ गईं और 10 मार्च 1897 को उनका देहांत हो गया।
सावित्रीबाई की विरासत
सावित्रीबाई फुले का जीवन त्याग, संघर्ष और प्रेरणा का आदर्श उदाहरण है। उन्होंने उस समय में समाज को शिक्षा और समानता का संदेश दिया, जब यह सोचना भी असंभव था। उनके प्रयासों ने यह सिद्ध किया कि शिक्षा और समानता समाज की सबसे बड़ी ताकत है।
आज का सन्देश
सावित्रीबाई फुले के जन्मदिवस पर हमें यह संकल्प लेना चाहिए कि उनके दिखाए मार्ग पर चलकर शिक्षा और समानता को समाज के हर वर्ग तक पहुँचाएंगे। उनके संघर्ष और योगदान को न केवल याद रखना चाहिए, बल्कि उसे आगे बढ़ाने का प्रयास भी करना चाहिए।
सावित्रीबाई ने हमें सिखाया कि समाज में परिवर्तन लाने के लिए साहस, धैर्य और समर्पण की आवश्यकता होती है। वह न केवल महिलाओं की प्रेरणा हैं, बल्कि हर उस व्यक्ति के लिए आदर्श हैं जो सामाजिक बदलाव का सपना देखता है।
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