शिव, सत्य और सनातन: जगद्गुरु आर्यम का वैदिक विमर्श | आध्यात्म और संस्कृति पर व्यापक चर्चा
टेन न्यूज नेटवर्क
New Delhi News (29/07/2025): टेन न्यूज नेटवर्क द्वारा आयोजित विशेष आध्यात्मिक संवाद कार्यक्रम में विशिष्ट वक्ता के रूप में आमंत्रित संत, लेखक, विचारक, योग चिंतक एवं जगतगुरु आर्यम प्रोफेसर पुष्पेन्द्र कुमार आर्य ने “अध्यात्म क्या है?” जैसे बुनियादी प्रश्न पर रोशनी डाली और इसे आत्मा के पथ पर प्रतिष्ठित होने की प्रक्रिया बताया। इस संवाद कार्यक्रम का संचालन टेन न्यूज नेटवर्क के सब एडिटर रंजन अभिषेक ने किया।
अध्यात्म की व्याख्या और उसकी आत्मिक प्रकृति
प्रो. आर्यम ने ‘अध्यात्म’ शब्द की व्युत्पत्ति “अद्य” और “आत्म” से जोड़ते हुए बताया कि अध्यात्म का तात्पर्य आत्मा के श्रेष्ठतम स्वरूप में प्रतिष्ठित होने से है। जैसे ही कोई व्यक्ति अपनी आत्मिक यात्रा प्रारंभ करता है, वह शिव तत्व के समीप आता है, परम ऊर्जा के स्पर्श में आता है, और स्वभावतः तेज, ओज और मेधा से परिपूर्ण हो जाता है। यही आत्म साक्षात्कार की यात्रा अध्यात्म का मूल है।
सावन और शिव की आध्यात्मिक संगति
जगतगुरु आर्यम ने सावन के महीने की विशेषता पर प्रकाश डालते हुए कहा कि यह महीना न केवल प्राकृतिक हरियाली का प्रतीक है, बल्कि शिव-तत्व के साक्षात्कार का भी श्रेष्ठ अवसर है। उन्होंने पुराणों के उदाहरणों से बताया कि कैसे पार्वती ने इसी महीने में शिव को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की थी। सावन का प्रत्येक सोमवार इसी तप और भक्ति का प्रतीक है।
वेदों में वर्णित शिव का स्वरूप
वेदों के संदर्भों को साझा करते हुए प्रो. आर्यम ने यजुर्वेद और ऋग्वेद के मंत्रों का उल्लेख किया। उन्होंने बताया कि शिव का स्वरूप वायु, अग्नि, सूर्य और मेघ से जुड़ा हुआ है। यजुर्वेद के मंत्रों में शिव को “शंभू” कहा गया है—जो संपूर्ण चराचर जगत का संचालन करते हैं। वर्षा ऋतु, कृषि और जीवन के सभी प्राकृतिक चक्र शिव तत्व के अधीन हैं।

समुद्र मंथन और अभिषेक की परंपरा
उन्होंने समुद्र मंथन के प्रसंग को याद करते हुए बताया कि जब हलाहल विष प्रकट हुआ, तब भगवान शिव ने उसे अपने कंठ में धारण किया और नीलकंठ कहलाए। इस विष के ताप को शांत करने के लिए सभी देवों ने उन पर जल और शीतल पदार्थों का अभिषेक किया। यहीं से सावन में शिव अभिषेक की परंपरा की शुरुआत हुई।
कांवड़ यात्रा की ऐतिहासिकता और मूल भावना
कांवड़ यात्रा पर बोलते हुए प्रो. आर्य ने बताया कि इसकी उत्पत्ति वैदिक काल से होती है। इसका एक महत्वपूर्ण पौराणिक संदर्भ श्रवण कुमार से जुड़ा है, जिन्होंने अपने दृष्टिहीन माता-पिता को कांवड़ में बैठाकर तीर्थ यात्रा कराई थी। कांवड़ यात्रा केवल जल अर्पण नहीं, बल्कि सेवा, श्रद्धा और आत्मसमर्पण का प्रतीक है।
आधुनिक कांवड़ परंपरा में विकृति की चेतावनी
उन्होंने आज की कांवड़ यात्रा में आई भौतिकता और प्रदर्शन की प्रवृत्ति पर चिंता जताई। प्रो. आर्य ने कहा कि शास्त्रों में कहीं नहीं कहा गया कि शिव को 100 किलो जल चढ़ाना चाहिए। उन्होंने विज्ञान और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी सावधान करते हुए कहा कि इस अति से धर्म का उपहास होता है, और लोगों की आस्था टूटती है।
नाभि के नीचे जल न रखने का वैदिक नियम
शिवसूत्र और परंपराओं का हवाला देते हुए उन्होंने स्पष्ट किया कि कांवड़ का जल नाभि से नीचे नहीं रखा जाना चाहिए। इसके लिए विशेष स्टैंड बनाए जाने चाहिए, जिससे शिवलिंग को अर्पित होने वाला जल अशुद्ध न हो। इससे धार्मिक मर्यादा और श्रद्धा दोनों की रक्षा होती है।
कैलाश मानसरोवर की यात्रा का महत्व
कैलाश यात्रा के अनुभव साझा करते हुए प्रो. आर्य ने बताया कि कैलाश एक अद्भुत धुरी है जो पूरी पृथ्वी के संतुलन का केंद्र है। उन्होंने बताया कि वहां का चुम्बकीय क्षेत्र इतना शक्तिशाली है कि व्यक्ति को अपनी ओर खींचता है। यह यात्रा केवल भौगोलिक नहीं, आत्मिक परिवर्तन की यात्रा है—मनुष्यत्व से शिवत्व की यात्रा।
स्वामित्व और आत्मस्वरूप की प्राप्ति
उन्होंने कहा कि कैलाश यात्रा व्यक्ति को अपने स्वभाव से युक्त करती है, और स्वामित्व का बोध कराती है—स्वयं की प्रसन्नता, दुख, शक्ति और भावनाओं का स्वामी बनना ही अध्यात्म का सच्चा अर्थ है। इस यात्रा के बाद व्यक्ति पहले जैसा नहीं रह जाता, उसका पुनर्जन्म होता है।

सनातन धर्म: जीवन पद्धति, न केवल एक धर्म
प्रो. आर्य ने स्पष्ट किया कि सनातन धर्म कोई सीमित धार्मिक अवधारणा नहीं है, बल्कि एक जीवन जीने की समग्र पद्धति है। यह पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश—इन पंचतत्वों और प्रकृति के प्रत्येक अंग के साथ सह-अस्तित्व का दर्शन है। यही सनातन की विशेषता है कि वह चर-अचर सभी में ईश्वर का अनुभव कराता है।
अंत में प्रो. आर्यम ने युवाओं से आह्वान किया कि वे श्रद्धा और विवेक के साथ अध्यात्म का मार्ग चुनें। दिखावे, अंधानुकरण और प्रदर्शन से बचें। उन्होंने कहा कि शिव की उपासना केवल जल चढ़ाने से नहीं, जीवन के प्रत्येक क्षण में शिवत्व के गुणों को धारण करने से होती है। इसी में मानवता का, प्रकृति का और आत्मा का कल्याण निहित है।।
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