नई दिल्ली विधानसभा सीट: सत्ता का सिंहासन | टेन न्यूज नेटवर्क की विशेष रिपोर्ट

टेन न्यूज नेटवर्क

नई दिल्ली (13 दिसंबर 2024): नई दिल्ली विधानसभा सीट, जिसे दिल्ली का “सत्ता का पावर हाउस” कहा जाता है, एक बार फिर से राजनीतिक दांव-पेचों का केंद्र बन गई है। यह सीट न केवल दिल्ली की सियासत की दिशा तय करती है, बल्कि सत्ता की कुंजी भी इसी के पास रहती है। नई दिल्ली सीट पर जो पार्टी जीतती है, वही दिल्ली की सत्ता पर काबिज होती है।

नई दिल्ली सीट: सत्ता का सूचक

1993 से अब तक के सात विधानसभा चुनावों में नई दिल्ली सीट ने सत्ता का सिंकदर तय किया है। 1993 में इस सीट पर बीजेपी के कीर्ति आजाद ने जीत दर्ज की थी, और दिल्ली में बीजेपी की सरकार बनी। इसके बाद 1998 से 2008 तक कांग्रेस की शीला दीक्षित ने लगातार तीन बार जीत दर्ज कर मुख्यमंत्री पद संभाला।

2013 से इस सीट पर आम आदमी पार्टी का दबदबा रहा है। अरविंद केजरीवाल ने इस सीट से लगातार तीन बार जीत हासिल की और तीनों बार दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। अब तक की परंपरा यही कहती है कि नई दिल्ली सीट पर विजयी नेता ही दिल्ली की सत्ता पर काबिज होता है।

केजरीवाल के सामने चुनौती बने संदीप दीक्षित

2024 के विधानसभा चुनाव में नई दिल्ली सीट पर अरविंद केजरीवाल चौथी बार अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। लेकिन इस बार उनके सामने कांग्रेस ने अपने दिग्गज नेता और पूर्व सांसद संदीप दीक्षित को उतारा है। संदीप दीक्षित, दिल्ली की तीन बार की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बेटे हैं, जो इस सीट का प्रतिनिधित्व करती थीं। 2013 में केजरीवाल ने शीला दीक्षित को हराकर दिल्ली की राजनीति में बड़ा उलटफेर किया था।

संदीप दीक्षित अपनी मां की राजनीतिक विरासत को बचाने और 2013 की हार का बदला लेने के लिए मैदान में उतरे हैं। वह केजरीवाल के खिलाफ सबसे आक्रामक नेताओं में गिने जाते हैं, जिससे मुकाबला बेहद रोचक बन गया है।

बीजेपी ने पत्ते नहीं खोले, कांग्रेस का दांव बड़ा

बीजेपी ने अभी अपने उम्मीदवार की घोषणा नहीं की है, लेकिन यह तय है कि मुकाबला त्रिकोणीय रहेगा। पिछले चुनावों में बीजेपी और कांग्रेस इस सीट पर कमजोर प्रदर्शन करती रही हैं। 2020 में केजरीवाल ने बीजेपी के सुनील यादव को 21,697 वोटों से हराया था। कांग्रेस के उम्मीदवार रोमेश सभरवाल महज 3,206 वोट हासिल कर तीसरे स्थान पर रहे थे।

नई दिल्ली सीट: जीत और हार के प्रभाव

नई दिल्ली सीट पर हार का मतलब राजनीतिक करियर का अंत हो सकता है। 1993 में कांग्रेस के बृजमोहन भामा की हार के बाद उनका राजनीतिक करियर खत्म हो गया। 2003 में पूनम आजाद और 2008 में विजय जौली की हार ने भी उन्हें सियासी हाशिये पर धकेल दिया। 2013 में शीला दीक्षित को मिली हार के बाद कांग्रेस अब तक उभर नहीं पाई है।

क्या चौथी बार जीतेंगे केजरीवाल?

केजरीवाल के लिए यह चुनाव न केवल उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता का सवाल है, बल्कि उनकी पार्टी की पकड़ को भी दर्शाएगा। दूसरी ओर, संदीप दीक्षित के पास अपनी मां की राजनीतिक विरासत को पुनर्जीवित करने का मौका है।

क्या केजरीवाल चौथी बार जीत का चौका लगाएंगे, या संदीप दीक्षित इतिहास बदलेंगे? यह सवाल नई दिल्ली सीट के हर मतदाता के दिमाग में है। लेकिन इतना तय है कि इस सीट पर होने वाला मुकाबला दिल्ली की राजनीति का सबसे दिलचस्प अध्याय लिखेगा।।

रंजन अभिषेक (टेन न्यूज नेटवर्क, नई दिल्ली)


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