देशभर में धूमधाम से मनाई जा रही डॉ. भीमराव अंबेडकर जयंती, जानें उनके जीवन से जुड़ी ये खास बातें

टेन न्यूज़ नेटवर्क

नई दिल्ली (14 अप्रैल 2025): आज देशभर में डॉ भीमराव अंबेडकर की जयंती मनाई जा रही है। भारतीय संविधान के सूत्रधार कहे जाने वाले डॉक्टर भीमराव अंबेडकर अपने जीवन में तमाम उतार- चढ़ाव आने के बावजूद एक प्रख्यात विधिवेत्ता के रूप में उभरे। उन्होंने भारतीय संविधान के निर्माण से पहले दर्जनों देशों के संविधान का अध्ययन किया और अंततः प्रमुख रूप से 11 देश के संविधान के कुछ अंश को शामिल करते हुए भारतीय संविधान का खाका खींचा था। आईए जानते हैं उनकी कुछ विशेष और खास बातें।

पढ़ाई का जुनून: खुद अपनी लाइब्रेरी के थे मालिक

डॉ. अंबेडकर का किताबों से प्रेम इतना गहरा था कि उन्होंने अपनी निजी लाइब्रेरी में 50,000 से अधिक किताबें एकत्र की थीं। ये भारत की सबसे बड़ी व्यक्तिगत लाइब्रेरी मानी जाती है। जब वे विदेश पढ़ाई के लिए गए तो उन्होंने 2000 किताबें अपने साथ ले लीं। लंदन में रहने के दौरान वे ब्रिटिश म्यूजियम की लाइब्रेरी में रोज़ाना अध्ययन करते थे। वे कहते थे, “मैं किताबों का पुजारी हूँ।” उनका पढ़ने का पैटर्न इतना व्यवस्थित था कि हर विषय पर नोट्स बनाए जाते थे। ये जुनून ही उनकी विशाल ज्ञान संपदा की नींव बना।

21 नहीं, 64 विषयों में थी विशेषज्ञता

अंबेडकर केवल कानून और समाजशास्त्र ही नहीं, बल्कि 64 अलग-अलग विषयों में पढ़ाई कर चुके थे। उन्होंने अर्थशास्त्र, राजनीति, इतिहास, मानव विज्ञान, संस्कृत, जर्मन, पाली, फ्रेंच, फ़ारसी और अन्य भाषाओं में भी डिग्रियाँ या प्रशिक्षण लिया। वे कुल 9 भाषाएं धाराप्रवाह बोल सकते थे। बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने जर्मन भाषा में भी अध्ययन किया था। वे पढ़ाई को आत्मनिर्भरता का सबसे शक्तिशाली उपकरण मानते थे। उनका ज्ञानवर्धन किसी इंस्टीट्यूट तक सीमित नहीं था – वे जीवन को ही विश्वविद्यालय मानते थे।

भारत का पहला अर्थशास्त्री जिसने जलनीति की रूपरेखा दी

डॉ. अंबेडकर ने 1923 में ‘The Problem of the Rupee’ नामक पुस्तक लिखी, जो भारतीय मुद्रा और उसकी स्थिरता पर आधारित थी। इसी पुस्तक के आधार पर उन्होंने RBI की स्थापना की रूपरेखा बनाई। उन्होंने ‘Water Policy’ पर भी पहली विस्तृत रिपोर्ट दी, जो बाद में भारत की पहली जलनीति की नींव बनी। उन्होंने ‘Central Water Commission’ जैसे संस्थानों के लिए प्रारंभिक सलाह दी थी। आज भी उनकी रिपोर्ट्स को अर्थशास्त्र और प्रशासनिक नीति के छात्र पढ़ते हैं। उन्हें आधुनिक भारत का पहला जल-अर्थशास्त्री भी कहा जा सकता है।

‘जातिवाद की कब्र’ खोदने वाला पहला विद्रोही शास्त्रज्ञ

1936 में डॉ. अंबेडकर ने Annihilation of Caste नामक एक भाषण तैयार किया था, जो जातिवाद के विरुद्ध तीव्रतम बौद्धिक हमला माना जाता है। आयोजकों ने उस भाषण को “अत्यधिक क्रांतिकारी” कहकर अस्वीकार कर दिया। अंबेडकर ने फिर स्वयं इस भाषण को किताब के रूप में प्रकाशित किया। इस किताब में उन्होंने गांधी जी के जाति संबंधी विचारों की भी तीखी आलोचना की थी। यह आज भी जाति-प्रथा पर सबसे साहसी आलोचनात्मक ग्रंथों में गिनी जाती है। उन्होंने तर्क, तथ्य और आक्रोश से सवर्ण व्यवस्था की नींव हिला दी।

भारत के पहले ‘लेबर मिनिस्टर’ के समकक्ष कार्य

डॉ. अंबेडकर ने वायसराय की कार्यकारी परिषद में ‘लेबर मेंबर’ के रूप में काम किया, जो आज के लेबर मिनिस्टर के समकक्ष था। उन्होंने मजदूरों के लिए 8 घंटे की ड्यूटी, साप्ताहिक अवकाश और कामकाजी महिलाओं के अधिकारों की शुरुआत की। उन्होंने ‘एम्प्लॉयमेंट एक्सचेंज’ और ‘प्रोविडेंट फंड’ जैसी योजनाओं की नींव डाली। रेलवे और पोस्ट ऑफिस कर्मचारियों को पहली बार छुट्टियों की सुविधा उनके प्रयासों से मिली। वे मजदूरों को देश की रीढ़ मानते थे। यह जानकारी सामान्यतः इतिहास की मुख्यधारा से गायब रही है।

डॉ. अंबेडकर और बौद्ध धर्म का वैज्ञानिक पक्ष

बुद्ध धर्म अपनाने से पहले उन्होंने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों का गहराई से अध्ययन किया। उन्होंने कहा “मैं ऐसा धर्म अपनाऊंगा जो समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व सिखाता हो।” बौद्ध धर्म में तर्क, नैतिकता और आत्मनिर्भरता के तत्वों ने उन्हें आकर्षित किया। उन्होंने बौद्ध धर्म को पुनरुत्थान के रूप में देखा, न कि केवल आध्यात्मिक साधना के रूप में। ‘The Buddha and His Dhamma’ उनकी अंतिम पुस्तक थी, जिसे मृत्यु से पहले वे स्वयं टाइप करवा रहे थे। उनका बौद्ध धर्म आत्म-सम्मान का विकल्प था।

उनका सिग्नेचर तक एक मैसेज था

बहुत कम लोग जानते हैं कि डॉ. अंबेडकर अंग्रेज़ी में दस्तखत करने से पहले “जय भीम” लिखते थे। यह नारा आज सामाजिक न्याय की सबसे ताक़तवर पहचान है। उनके दस्तखत के नीचे ‘जय भीम’ लिखना केवल भावनात्मक नहीं था, यह एक वैचारिक उद्घोष था। यह दिखाता है कि वे विचारों को केवल भाषणों में नहीं, अपने जीवन में भी जीते थे। उनका प्रत्येक हस्ताक्षर सामाजिक न्याय का ऐलान था। ‘जय भीम’ आज भी असंख्य लोगों के लिए आत्मसम्मान की गूंज है।

उन्होंने गांधी जी को चुनौती दी थी

1932 में पूना पैक्ट से पहले डॉ. अंबेडकर और गांधी के बीच तीखा मतभेद हुआ। अंबेडकर ने दलितों के लिए अलग निर्वाचक मंडल की मांग की थी, जिसे गांधी जी ने भूख हड़ताल करके विरोध किया। दोनों के बीच मतभेद थे, परंतु दोनों का समान उद्देश्य दलित कल्याण ही था। बाद में पूना पैक्ट बना, जिसमें दलितों को आरक्षण तो मिला, लेकिन राजनीतिक स्वतन्त्रता नहीं। यह घटना अंबेडकर की राजनीतिक दूरदर्शिता और दृढ़ता को दर्शाती है। उन्होंने कभी जनभावना से दबकर निर्णय नहीं लिया।

उनका पहला नाम ‘अंबावडेकर’ था

डॉ. अंबेडकर का असली उपनाम ‘अंबावडेकर’ था, जो उनके पैतृक गांव ‘अंबावडे’ से जुड़ा था। स्कूल में उनके शिक्षक, ब्राह्मण कृष्णाजी केशव अंबेडकर, ने अपने उपनाम ‘अंबेडकर’ को उनके साथ जोड़ दिया, ताकि उन्हें जातिगत भेदभाव से बचाया जा सके। यहीं से उनका नाम ‘भीमराव अंबेडकर’ पड़ा। यह जानकारी बहुत कम लोगों को है। उनका नाम ही उनके जीवन की पहली सामाजिक लड़ाई का प्रमाण है।

उनकी मृत्यु के समय उनकी आँखें खुली थीं

डॉ. अंबेडकर की मृत्यु 6 दिसंबर 1956 को नींद में नहीं, बल्कि काम करते हुए हुई थी। उनकी टाइपिस्ट ने बताया था कि मृत्यु के समय उनकी आंखें खुली थीं और वे ‘द बुद्धा एंड हिज धम्म’ की अंतिम पंक्तियाँ बोल रहे थे। वे मृत्यु तक काम में लगे रहे। उनकी अंतिम यात्रा में लगभग 10 लाख लोग शामिल हुए थे। वे केवल एक नेता नहीं थे, बल्कि अपने विचारों के अंतिम क्षण तक योद्धा रहे।

डॉ. अंबेडकर का सपना था ‘जातिविहीन भारत’

वे केवल आरक्षण के पैरोकार नहीं थे, बल्कि उनका अंतिम उद्देश्य जाति का पूर्ण उन्मूलन था। उन्होंने कहा था “मैं उस दिन खुश होऊंगा जब मेरे समाज को आरक्षण की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।” उन्होंने दलितों से हमेशा कहा कि शिक्षा और आत्मनिर्भरता ही स्थायी मुक्ति है। वे चाहते थे कि जाति सिर्फ किताबों तक सीमित रहे, समाज से उसका अंत हो। उनके विचारों को केवल आरक्षण तक सीमित कर देना उनकी सोच का अपमान है। वे जाति व्यवस्था के सबसे गंभीर आलोचक थे।

डॉ. अंबेडकर आज भी सिर्फ किताबों और मूर्तियों में नहीं, करोड़ों लोगों के आत्मबल में जीवित हैं। उनका जन्म एक गरीब दलित परिवार में हुआ था, लेकिन उनका जीवन हर वंचित के लिए आशा की मिसाल बन गया। वे साबित करते हैं कि किताब और कलम से क्रांति लाई जा सकती है। आज की पीढ़ी को उनके नाम को नहीं, उनके विचारों को अपनाने की जरूरत है। वे संविधान में नहीं, चेतना में जिंदा हैं। और शायद यही उनकी सबसे बड़ी जीत है।


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