महात्मा ज्योतिबा फुले की जयंती पर विशेष: कौन थे महात्मा ज्योतिबा फुले ?

टेन न्यूज़ नेटवर्क

नई दिल्ली (11 अप्रैल 2025): महात्मा ज्योतिबा फुले का नाम भारतीय समाज सुधारकों की अग्रिम पंक्ति में लिया जाता है। वे उन गिने-चुने व्यक्तित्वों में से थे जिन्होंने जाति-पाति, छुआछूत, अंधविश्वास और स्त्री-विरोधी कुरीतियों के विरुद्ध जीवन भर संघर्ष किया। उन्होंने भारतीय समाज की जड़ों में बसे असमानता और अन्याय को चुनौती दी। 1827 में पुणे के एक माली परिवार में जन्मे फुले का बाल्यकाल कठिनाइयों से भरा था, लेकिन उन्होंने शिक्षा प्राप्त कर अपने सोच और दृष्टिकोण को विकसित किया। शुरुआती शिक्षा के दौरान ही उन्होंने समाज में व्याप्त जातिगत भेदभाव को महसूस किया और यह उनके भीतर गहरी छाप छोड़ गया। उन्होंने समाज में व्याप्त कुरूतियों को न सिर्फ पहचाना बल्कि उन्हें समाप्त करने का बीड़ा उठाया। जातिवाद, ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता जैसे विषयों को उन्होंने खुलकर चुनौती दी। वे मानते थे कि जब तक समाज के सबसे निचले वर्ग को समान अधिकार नहीं मिलते, तब तक कोई भी प्रगति अधूरी है। उनका जीवन संघर्ष और परिवर्तन का प्रतीक बन गया।

महात्मा फुले का सबसे बड़ा योगदान महिलाओं और दलितों की शिक्षा के क्षेत्र में रहा। 1848 में उन्होंने अपनी पत्नी सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर देश का पहला महिला स्कूल खोला। उस समय समाज में महिलाओं की शिक्षा को पाप समझा जाता था। लेकिन फुले दंपती ने न केवल समाज के विरोध का सामना किया, बल्कि उसे बदलने का भी प्रयास किया। लोगों ने स्कूल जाते समय सावित्रीबाई पर पत्थर और गोबर फेंके, फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। सावित्रीबाई खुद उस स्कूल की पहली शिक्षिका बनीं। फुले ने बालिकाओं को शिक्षित कर समाज में चेतना जगाने की पहल की। उनका मानना था कि शिक्षित नारी ही समाज की रीढ़ होती है। इसके अलावा उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह का समर्थन किया। उन्होंने सामाजिक सुधार के लिए शिक्षा को सबसे प्रभावशाली हथियार माना।

महात्मा फुले ने दलित और पिछड़े वर्ग के उत्थान के लिए भी कई कार्य किए। उन्होंने ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की, जिसका उद्देश्य जातिगत भेदभाव के विरुद्ध आवाज उठाना था। यह समाज शूद्रों, अति-शूद्रों और स्त्रियों को समान अधिकार देने के लिए कार्यरत था। सत्यशोधक समाज के माध्यम से उन्होंने धार्मिक कर्मकांडों और ब्राह्मणवाद के प्रभुत्व को चुनौती दी। उन्होंने यह संदेश फैलाया कि ईश्वर सबका है, और कोई जाति ऊँच-नीच नहीं। फुले ने दलितों के लिए स्कूल और धर्मशालाएं खोलीं। उन्होंने बाल विवाह और दहेज प्रथा का विरोध किया। उनका विश्वास था कि जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति को सम्मान नहीं मिलेगा, तब तक स्वतंत्रता अधूरी रहेगी। उनके विचार आज भी सामाजिक समानता की प्रेरणा देते हैं।

महात्मा फुले ने कई पुस्तकें भी लिखीं जिनमें गुलामगिरी सबसे प्रसिद्ध है। यह पुस्तक 1873 में प्रकाशित हुई और इसमें उन्होंने सामाजिक गुलामी को गहराई से समझाया। इस पुस्तक के माध्यम से उन्होंने यह दिखाया कि कैसे धर्म और परंपराएं शोषण का उपकरण बन गई हैं। उन्होंने गुलामी को मानसिक, सामाजिक और आर्थिक स्तर पर देखा और बताया कि इससे मुक्ति केवल शिक्षा और आत्मचेतना से संभव है। गुलामगिरी ने उस समय के सामाजिक ढांचे को झकझोर कर रख दिया। फुले ने शिक्षा को सबके लिए अनिवार्य और सुलभ बनाने की वकालत की। उनका मानना था कि जब तक दलित, स्त्रियां और गरीब शिक्षित नहीं होंगे, समाज में परिवर्तन नहीं आएगा। उन्होंने धार्मिक पाखंड और कर्मकांडों का खंडन करते हुए तर्क और विवेक की शिक्षा दी। उनका साहित्य आज भी क्रांति का स्रोत है।

फुले का जीवन संघर्षों से भरा रहा, लेकिन उन्होंने कभी हार नहीं मानी। समाज में सुधार लाने के लिए उन्होंने जो रास्ता चुना, वह कांटों से भरा था। एक समय ऐसा भी आया जब उन्हें सामाजिक बहिष्कार झेलना पड़ा। उन पर जानलेवा हमले तक किए गए, लेकिन उन्होंने अपने मिशन को नहीं छोड़ा। उन्होंने सावित्रीबाई के साथ मिलकर बालिकाओं और दलितों की शिक्षा को निरंतर आगे बढ़ाया। उन्होंने यह सिद्ध किया कि बदलाव लाने के लिए निष्ठा, धैर्य और साहस की आवश्यकता होती है। फुले मानते थे कि समाज तभी बदलेगा जब हर व्यक्ति को समान अवसर और अधिकार मिलेंगे। उनकी सोच आज के समय में भी उतनी ही प्रासंगिक है। शिक्षा, समानता और स्वतंत्रता के विचार आज भी उनके योगदान को जीवित रखते हैं।


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