26/11 मुंबई हमला: तुकाराम ओंबले की वीरता ने बचाई मुंबई

टेन न्यूज नेटवर्क

National News (27/11/2025): 26/11 मुंबई हमले की 17वीं बरसी पर देश उस बहादुर पुलिसकर्मी को याद कर रहा है, जिसकी अदम्य साहस ने पूरी जांच की दिशा बदल दी। मुंबई पुलिस के असिस्टेंट सब-इंस्पेक्टर तुकाराम ओंबले ने अपने प्राणों की आहुति देकर आतंकी अजमल आमिर कसाब को जिंदा पकड़ने में निर्णायक भूमिका निभाई। यही वह क्षण था जिसने न केवल भारत बल्कि पूरी दुनिया के सामने पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद की सच्चाई निर्विवाद सबूतों के साथ उजागर की।

साल 2008 की वह काली रात—जब मुंबई की सड़कों पर गोलियों की आवाज़ें, धुएं का गुबार और चीखों का सन्नाटा एक साथ गूंज रहा था। ताज होटल की जलती हुई गुंबद पूरी दुनिया के लिए आतंक की तस्वीर बनी, वहीं CST, कामा अस्पताल और कोलाबा की खामोशी आज भी भारत के इतिहास की दर्दनाक यादों में दर्ज है। लगभग 60 घंटे तक चली इस दहशत में 160 से अधिक निर्दोष लोगों की जान चली गई और देश पूरी तरह स्तब्ध रह गया।

इसी बीच 27 नवंबर की रात करीब 12:40 बजे गिरगांव चौपाटी के पास वह पल आया जिसने इस हमले की पूरी कहानी बदल दी। दो आतंकियों की स्कोडा कार पुलिस बैरिकेड से टकराई। एक आतंकी मौके पर ढेर हो गया, जबकि दूसरा—अजमल कसाब—AK-47 लिये बाहर निकला। पुलिस को निर्देश थे कि यदि संभव हो, कम से कम एक आतंकी को जिंदा पकड़ा जाए।

अधिकांश पुलिसकर्मी पोजिशन लेने लगे, लेकिन तुकाराम ओंबले ने बिना हथियार, बिना ढाल और बिना किसी भय के सीधे आतंकी की ओर दौड़ लगा दी। उन्होंने कसाब की राइफल के मुंह को दोनों हाथों से पकड़ लिया। कसाब ने तुरंत फायरिंग शुरू कर दी और ओंबले के सीने में 20 से अधिक गोलियां लगीं। पर अपनी अंतिम सांसों तक उन्होंने हथियार नहीं छोड़ा, जिससे आतंकी किसी और को निशाना नहीं बना पाया। इसी कुछ सेकंड की वीरता ने अन्य पुलिसकर्मियों को कसाब को काबू करने का मौका दिया।

मौके पर मौजूद पुलिस टीम में से एक आवाज़ गूंजी— “याला मारू नका… हा एविडेंस आहे।”
(“इसे मत मारो… यह सबूत है।”)

यही एक वाक्य भारत को वह मौका दे गया जो इतिहास में हमेशा दर्ज रहेगा। जिंदा पकड़े गए कसाब ने वह सारी कड़ियां खोलीं जिनसे पाकिस्तान स्थित प्रशिक्षण शिविर, हेंडलर और पूरी साजिश दुनिया के सामने बेनकाब हुई।

तुकाराम ओंबले को उनकी असाधारण बहादुरी के लिए मरणोपरांत अशोक चक्र से सम्मानित किया गया। परिवार और सहकर्मी आज भी उन्हें एक अनुशासित, शांत और कर्तव्यनिष्ठ अधिकारी के रूप में याद करते हैं—एक ऐसा व्यक्ति जिसने बिना एक पल सोचे अपनी जान देश के लिए न्योछावर कर दी।

26/11 का जख्म भले ही गहरा है, लेकिन तुकाराम ओंबले की वीरता भारत की सामूहिक स्मृति में हमेशा एक अमर प्रेरणा के रूप में जीवित रहेगी।

डिस्क्लेमर: यह लेख / न्यूज आर्टिकल सार्वजनिक डोमेन में उपलब्ध जानकारी और प्रतिष्ठित / विश्वस्त मीडिया स्रोतों से मिली जानकारी पर आधारित है।यह लेख केवल सामान्य जानकारी के लिए है। पाठक कृपया स्वयं इस की जांच कर सूचनाओं का उपयोग करे ॥


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