उपराष्ट्रपति जगदीप धनकड़ के बयान ने कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच छेड़ी नई बहस

टेन न्यूज़ नेटवर्क

नई दिल्ली (18 अप्रैल 2025): भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के एक आदेश पर तीखी प्रतिक्रिया दी, जिसमें राष्ट्रपति को विधेयक पर तीन महीने में फैसला लेने की समयसीमा दी गई थी। उन्होंने कहा कि ऐसा लोकतंत्र उन्होंने कभी नहीं सोचा था, जहां न्यायपालिका न सिर्फ कानून बनाए बल्कि कार्यपालिका का काम भी संभाले। उपराष्ट्रपति ने चेताया कि इस प्रवृत्ति से लोकतांत्रिक aसंतुलन पर खतरा मंडरा सकता है। उनका कहना था कि जज अब ‘सुपर संसद’ की तरह बर्ताव कर रहे हैं। उन्होंने चिंता जताई कि न्यायपालिका पर कोई जवाबदेही नहीं है। यह लोकतंत्र के मूलभूत ढांचे के खिलाफ है। यह टिप्पणी राज्यसभा के प्रशिक्षुओं के कार्यक्रम में दी गई थी।

उपराष्ट्रपति ने विशेष रूप से सुप्रीम कोर्ट के उस निर्देश पर सवाल उठाए जिसमें कहा गया कि राष्ट्रपति को विधेयकों पर एक निश्चित समय के भीतर निर्णय लेना होगा। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति देश का सर्वोच्च संवैधानिक पद है और उस पर निर्देश देना संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन है। धनखड़ ने कहा कि संविधान केवल न्यायिक व्याख्या का अधिकार देता है, वह भी संविधान पीठ को। उन्होंने यह भी कहा कि यदि राष्ट्रपति को समय सीमा में बांधा गया तो इससे कार्यपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ेगा। उनके अनुसार, यह पहला मौका है जब न्यायपालिका इस हद तक आगे बढ़ी है। उन्होंने यह स्थिति लोकतंत्र के लिए खतरनाक बताई।

उपराष्ट्रपति ने तमिलनाडु सरकार बनाम राज्यपाल केस का उल्लेख करते हुए कहा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कार्यपालिका के अधिकारों में हस्तक्षेप है। कोर्ट ने कहा था कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लटका नहीं सकते और उन्हें समय सीमा में फैसला लेना होगा। उपराष्ट्रपति ने सवाल किया कि अगर विधानसभा फिर से वही विधेयक पारित करती है तो राज्यपाल को उसे स्वीकार करने के लिए मजबूर करना क्या संविधान के अनुरूप है? धनखड़ ने इस फैसले को राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका को कमजोर करने वाला बताया। उन्होंने कहा कि न्यायपालिका का काम संविधान की व्याख्या है, न कि कार्यपालिका को आदेश देना। इस दिशा में आगे बढ़ना लोकतंत्र को कमजोर करेगा।

उपराष्ट्रपति ने न्यायपालिका के बढ़ते हस्तक्षेप को लोकतंत्र के लिए एक ‘सिस्टम शेकिंग’ स्थिति कहा। उन्होंने कहा कि अगर जज ही कानून बनाएं और कार्यपालिका की भूमिका निभाएं तो संसद और कार्यपालिका की क्या जरूरत रह जाएगी। उन्होंने कहा कि ऐसी स्थिति लोकतंत्र के तीनों स्तंभों के बीच संतुलन को बिगाड़ देगी। उपराष्ट्रपति ने कहा कि यह स्थिति संविधान निर्माता डॉ. अंबेडकर की कल्पना से विपरीत है। उन्होंने यह भी कहा कि देश की जनता ने जजों को न तो चुना है, न ही वे उनके प्रति जवाबदेह हैं। इसलिए लोकतंत्र की रक्षा के लिए इन प्रवृत्तियों पर रोक जरूरी है।

कपिल सिब्बल ने व्यक्त की तीखी प्रतिक्रिया

इस बयान पर वरिष्ठ वकील और राज्यसभा सांसद कपिल सिब्बल ने तीखी प्रतिक्रिया दी। उन्होंने कहा कि उपराष्ट्रपति को किसी पार्टी प्रवक्ता की तरह नहीं बोलना चाहिए। सिब्बल ने कहा कि अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट को पूर्ण न्याय करने का अधिकार है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति और राज्यपाल टिट्यूलर हेड हैं, असली निर्णय मंत्रिपरिषद की सलाह से होते हैं। उन्होंने उपराष्ट्रपति की टिप्पणियों को न्यायपालिका पर हमला बताया। सिब्बल ने कहा कि जब सरकार को कोर्ट का फैसला पसंद नहीं आता, तब वे इस तरह की बयानबाजी करते हैं। कोर्ट का सम्मान हर स्थिति में किया जाना चाहिए।

कपिल सिब्बल ने आगे कहा कि अगर उपराष्ट्रपति को कोर्ट के किसी फैसले पर आपत्ति है तो वे रिव्यू पिटीशन दाखिल कर सकते हैं। इसके अलावा अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति सुप्रीम कोर्ट से सलाह भी मांग सकते हैं। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र में सभी संस्थाओं को संतुलन और मर्यादा में रहकर काम करना चाहिए। उन्होंने अनुच्छेद 142 को उपराष्ट्रपति द्वारा ‘परमाणु मिसाइल’ कहे जाने पर भी विरोध जताया। सिब्बल ने कहा कि मिसाइल नोटबंदी थी, कोर्ट का फैसला नहीं। उन्होंने यह भी कहा कि न्यायाधीश जवाब नहीं देते, इसलिए उन पर इस तरह के बयान देना अनुचित है।

सिब्बल ने उपराष्ट्रपति की निष्पक्षता पर भी सवाल उठाए और कहा कि सभापति का पद पार्टी प्रवक्ता का नहीं होता। उन्होंने कहा कि उपराष्ट्रपति का काम सदन में पक्ष और विपक्ष के बीच संतुलन बनाए रखना है। इस तरह के राजनीतिक टिप्पणियों से उस भूमिका को नुकसान पहुंचता है। उन्होंने जोर दिया कि न्यायपालिका को डराने या दबाव में लाने का प्रयास खतरनाक है। सिब्बल ने सवाल किया कि क्या हम चाहते हैं कि राष्ट्रपति या राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चित काल तक रोकते रहें। अगर कार्यपालिका निष्क्रिय रहती है तो न्यायपालिका को हस्तक्षेप करना ही पड़ता है।

उन्होंने दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से बरामद नकदी के मामले में भी सवाल उठाए। सिब्बल ने कहा कि इतने समय बाद भी एफआईआर दर्ज नहीं हुई, यह सरकार की निष्क्रियता दर्शाता है। उन्होंने बताया कि 55 सांसदों ने महाभियोग के लिए हस्ताक्षर किए थे लेकिन प्रक्रिया में देरी हो रही है। उन्होंने यह भी आरोप लगाया कि जब सरकार के पसंद के अनुसार फैसले आते हैं तो उन्हें मनाया जाता है, और जब न आएं तो उनकी आलोचना होती है। इस दोहरे मापदंड से न्यायपालिका पर भरोसा कमजोर होता है। उन्होंने कहा कि कोर्ट पर सवाल उठाने से पहले अपने कदमों पर भी नजर डालनी चाहिए।

कपिल सिब्बल ने उपराष्ट्रपति से पूछा कि क्या वे सुप्रीम कोर्ट के वीरास्वामी फैसले को नहीं मानते, जिसमें चीफ जस्टिस को विशेष भूमिका दी गई है। उन्होंने इलाहाबाद हाईकोर्ट के एक जज के सांप्रदायिक बयान का उदाहरण देते हुए पूछा कि तब क्यों एफआईआर की मांग नहीं की गई। उन्होंने यह भी कहा कि जब न्यायपालिका को अपने तरीके से न्याय देना होता है, तो संविधान उसे शक्ति देता है। उन्होंने चेतावनी दी कि ऐसे बयान न्यायपालिका को कमजोर करते हैं। देश में पहले से ही संस्थाओं पर विश्वास की कमी हो रही है। अगर न्यायपालिका भी निशाने पर होगी तो यह लोकतंत्र के लिए खतरनाक होगा।

दोनों पक्षों की बातों से साफ है कि यह विवाद सिर्फ एक अदालती फैसले का नहीं, बल्कि संविधान की व्याख्या और संस्थागत संतुलन का है। उपराष्ट्रपति जहां न्यायपालिका के बढ़ते दखल पर चिंता जता रहे हैं, वहीं सिब्बल इस बयान को राजनीति प्रेरित बता रहे हैं। यह बहस दिखाती है कि भारतीय लोकतंत्र में संस्थागत मर्यादा और अधिकारों की सीमाएं लगातार चुनौती के दौर में हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और कार्यपालिका की जिम्मेदारी में संतुलन बनाना ही इस बहस का सार है। इस विवाद के बाद संविधानिक विशेषज्ञों में भी चर्चा तेज हो गई है। अब यह देखना होगा कि आगे की राह क्या मोड़ लेती है।

संवैधानिक विवेक और संतुलन बनाए रखना आज की सबसे बड़ी जरूरत है। न तो न्यायपालिका को कार्यपालिका के अधिकारों में हस्तक्षेप करना चाहिए, न ही कार्यपालिका को न्यायिक फैसलों को सार्वजनिक मंच से कठघरे में खड़ा करना चाहिए। लोकतंत्र में हर संस्था की गरिमा और सीमा होती है। अगर इनमें संतुलन बिगड़ता है तो पूरे शासन प्रणाली पर असर पड़ता है। न्यायपालिका का दायित्व है कि वह संविधान की रक्षा करे, लेकिन उसका उल्लंघन कर कार्यपालिका की भूमिका न निभाए। और कार्यपालिका को भी निष्क्रिय न रहकर अपने दायित्व निभाने होंगे। वरना लोकतंत्र कमजोर होगा।

उपराष्ट्रपति और सुप्रीम कोर्ट के बीच यह टकराव एक चेतावनी है कि सभी संवैधानिक संस्थाओं को अपने अधिकार और सीमाओं का सम्मान करना होगा। बयानबाजी से बेहतर है कि संवाद और कानूनी प्रक्रिया के जरिए समाधान खोजे जाएं। जहां संविधान का पालन सर्वोपरि हो, वहीं लोकतांत्रिक परंपराओं का संरक्षण भी जरूरी है। कपिल सिब्बल और धनखड़ की बहस ने देशभर में संवैधानिक चर्चाओं को हवा दी है। आने वाले समय में इस पर और राजनीतिक और कानूनी प्रतिक्रियाएं संभव हैं। इस बहस में जनता की समझदारी और संस्थाओं की गरिमा दोनों की परीक्षा है।।


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